NSUI ने कुलगुरु प्रो. राजेश कुमार वर्मा को धन से भरा बैग भेंट कर इस्तीफे की मांग की
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एनएसयूआई ने प्रो. राजेश कुमार वर्मा को धन से भरा बैग भेंट किया और इस्तीफे की मांग की।
उनके कुलगुरु पद की नियुक्ति में यूजीसी के नियमों का उल्लंघन और राजनीतिक हस्तक्षेप का आरोप।
छात्र समस्याओं, परीक्षा परिणामों में देरी और प्रशासनिक निष्क्रियता के कारण विरोध प्रदर्शन किया गया।
जबलपुर। भारतीय राष्ट्रिय छात्र संगठन के जिला अध्यक्ष सचिन रजक के नेतृत्व मे आज बड़ी संख्या मे छात्रों ने विश्वविद्यालय परिसर स्थित सभा भवन मे बैठक के दौरान अंदर घुसकर जमकर हंगामा कर कुलगुरु के समक्ष नोटों से भरी बैग खोलकर उन्हें धन की भेंट चढ़ाई। जिलाध्यक्ष सचिन रजक ने आरोप लगाया कि विश्वविद्यालय मे प्रशासनिक निष्क्रियता के चलते छात्रों से जुड़ी समस्याओं का कोई निराकारण नहीं हो रहा। महीनों बीत जाने के बाद भी परीक्षाओं का परिणाम समय पर घोषित नहीं किया जाता। परीक्षाओं के परिणाम से छात्र असंतुष्ट रहते हैं, विश्वविद्यालय द्वारा जारी परीक्षाओं की समय सारिणी मे विसंगति है, शोध का स्तर लगातार गिर रहा है, आदि मांगो को लेकर छात्र खासे नाराज़ है। आलम यह है कि पिछले दिनों प्रदेश के राज्यपाल द्वारा भी विश्वविद्यालय को कहना पड़ा कि परीक्षा परिणाम मे देरी क्यों की जा रही है। इन सभी विसंगतियों का कारण विश्वविद्यालय मे नियुक्त हुए अक्षम कुलपति प्रो राजेश कुमार वर्मा हैं। आज एनएसयूआई द्वारा उन्हें भेंट किया गया नोटों से भरा बैग योग्यता के बजाए धन बल पर नियुक्ति हासिल कर लेने का प्रतीक है। वही इस संबंध मे पिछले दिनों भोपाल मे प्रदेश कांग्रेस कार्यालय मे एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष द्वारा यह जानकारी सार्वजनिक की गई है कि, प्रो राजेश कुमार वर्मा की मूल पद अर्थात प्राध्यापक पद पर नियुक्ति ही अवैध है एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मापदंडों के विपरीत की गई है।
ज्ञात हो कि रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के वर्तमान कुलगुरु प्रोफेसर राजेश कुमार वर्मा की मूल पद अर्थात प्राध्यापक पद पर नियुक्ति में स्पष्ट विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। उन्हें पीएचडी उपाधि 25 नवंबर 2008 को प्रदान की गई थी, और इसके बाद 19 जनवरी 2009 को मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग ने उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत प्राध्यापक पद पर नियुक्ति के लिए रोजगार और निर्माण मे विज्ञापन जारी किया। इस विज्ञापन में प्राध्यापक पद (प्रथम श्रेणी) के लिए दो आवश्यक योग्यताएँ अनिवार्य की गई थीं: संबंधित विषय में पीएचडी उपाधि एवं दस वर्षों का अध्यापन अनुभव। इसके अनुसार, प्राध्यापक पद हेतु आवश्यक न्यूनतम योग्यता में पीएचडी उपाधि के उपरांत दस वर्षों का अध्यापन अनुभव होना अनिवार्य था। यह भी स्पष्ट किया गया था कि आवेदकों के पास यह अनुभव और योग्यता विज्ञापन की अंतिम तिथी, यानी 20 फरवरी 2009 तक होनी चाहिए। चूंकि प्रोफेसर राजेश कुमार वर्मा ने 2008 में अपनी पीएचडी पूरी की और जनवरी 2009 में आयोग द्वारा विज्ञापन जारी किया गया, इससे यह स्पष्ट होता है कि विज्ञापन की तिथि तक उनके पास आवश्यक अनुभव नहीं था। इसके बावजूद उन्हें नियमों की अवहेलना करते हुए सीधे प्राध्यापक पद पर नियुक्ति दी गई। इस संदर्भ में विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले मौजूद हैं, जो स्पष्ट करते हैं कि आवश्यक अनुभव की गणना अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के पश्चात से की जानी चाहिए, न कि उसके पहले।
इस मामले मे दूसरा पक्ष यह भी है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) विनियम, 2000 विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति और करियर उन्नयन हेतु न्यूनतम योग्यताएँ एवं मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा जारी विज्ञापन मे लेख है कि प्रोफेसर पद की अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता के अतिरिक्त दस वर्षों के अनुभव मे पीएचडी शोधार्थियों के शोध निदेशक के रूप मे कार्यानुभव शामिल होना चाहिए। परंतु प्रो राजेश कुमार वर्मा ने पीएचडी उपाधि वर्ष 2008 मे प्राप्त की है, और उन्हें प्रोफेसर पद हेतू वांछित योग्यता विज्ञापन की अंतिम तिथि फरवरी 2009 तक संधारित करनी थी, ऐसे मे यह स्पष्ट है कि प्रो राजेश कुमार वर्मा का शोध निदेशक के रूप मे अनुभव शून्य था। प्रश्न उठता है कि जिसकी नियुक्ति ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए की गई हो, वह व्यक्ति किस आधार पर विश्वविद्यालय का संचालन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों के अनुसार कर पाएगा। ऐसी फर्जी और राजनैतिक गठजोड़ कर लोगों को विश्वविद्यालय का सर्वे सर्वा बनाना सामान्य न्याय के सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन है और अंततः इसका खमियाज़ा छात्रों को ही भुगतना पड़ रहा है। इस संबंध मे आगामी दिनों मे एनएसयूआई द्वारा प्रेस वार्ता का आयोजन कर इस घोटाले की सभी जानकारी सार्वजनिक की जाएगी.